Friday, January 17, 2014

prem prasang part1

हवायें खुश्क थी
सूरज बादलों में छिपा साँस ले रहा था
सुनसान सड़कें, कदमों की आहट
धड़कन तेज हुई और फिर रुक गयी
मॅन था भी और नही भी
सकपका सा गया मैं
आँखें बंद की और रुक गया
हर पल ऐसे बीट रहा था जैसे सादिया बीट रही हो
सब शांत हो गया था
खामोशी तेरे होने का गीत गये इसका इंतेज़ार कर रहा था
आहट और तेज़ी से बढ़ने लगी
मैं विस्मै का आभार प्रकट कर रहा था
एहसास धड़कनो से जुगलबंदी कर पाती
उससे पहले कानो में एक आवाज़ ने स्थिरता के समग्रा बंधन तोड़ डाले
तेरा चेहरा था बंद आखों में
तेरी खुश्बू थी मेरी साँसों में
और क्या चाहिए था जीने के लिए
आँखें खोलने का फ़ैसला किया मैने
सब बदल चुका था
ना सड़कें सुनसान थी
सूरज भी अपनी फ़िज़ा बिखेर रहा था
घड़ी देखी ,काफ़ी देर हो गयी थी शायद
बक्सा उठाया और उस सुनहरे से पल के साथ घर की ओर चल पड़ा

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