Monday, February 28, 2011

बारिश की पहली बूँद,छूने को ललचाई थी
दिनकर के एहसानो से यह मिट्टी भी पथराई थी
कुछ मानवता के क़िस्सों ने रातों की नींद उड़ाई थी
अब बेकौफ़ अकेले सोने में आज़ादी भी भरमाई थी
गोली की बौछारों ने जब माँ की लोरी का स्थान लिया
तब चद्दादर ओढ़ के सोने में नींद गजब की आई थी
जब गाजर मूली के दामों जीवन का व्यापार हुआ
जब स्वेताम्बर को रक्तांबर कर भीषद हाहाकार हुआ
जब कफ़न बेचकर लोगों ने अपनी जेबें भर डालीं थी,
जब आम आदमी की रोटी पर आँख गाड़ा कर बैठे थे
जब खेल खेल में लोगों ने खेलों में खेला खेली की
तब देश पे उन बलिदानो का पूछो आख़िर क्या मोल रहा
अब भ्रष्टाचार की आँधी से आँखों पर ऐसी धूल जमी
जो दिए कभी रोशन करते वो आज अंधेरा देते है
भूखी नंगी मानवता पर कुछ हसी मुझे आ जाती है
हम न्याया माँगते फिरते है हाथों में खंजर लेकर
इस उहा पोह्ह में फासें हुए हम अक्सर चीखा करते है
अब दीवारें भी दरक गयी फिर भी इतना सन्नाटा है
यह आज़ादी का बिगुल है फिर मौत का भीषद सांखनाद