Friday, February 17, 2012

शायद करवट ले रही थी zindagi

चाँद अश्कों की गुलामी थी
कुछ लम्हो की बदसलूकी थी
पर्दे के पीछे खड़े होने की तकालूफ
या फिर शर्म को महस्सोस करके भी उसका सजदा
गुमान था हर सील पर हर अक्षर पर
निकला बेइन्तेहन्न जसबातों के साथ
बह गया पर्दे के पीछे के सच पर
रातें बिखर गयी रंग कुछ गुमसूँ से
कहना था, ज़बान मुकर गयी
गले मिल रही थी तन्हाई और ज़िंदगी
हास रहा था मैं लेकिन, बेचारा
शायद नज़म ख़तम होने को थी
हर श्कश रोने की कॉसिश कर रहा था
सब ठहर सा गया था
सहमी हुई सी कसिश खुद को बयान कर रही थी
अकेले चलने का शमा भी कुछ थम सा गया था
शायद करवट ले रही थी ज़िंदगी

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