Saturday, September 4, 2010

To all my friends

कदम दो कदम चले थे
ज़िंदगी को मुट्ठी में करने
ख्वाहिशों का परदा आँखों पे डालकर
चल पड़े थे ज़माने से लड़ने
पहली ठोकर थी वो
जिसने छोड़ दिया था मुझे उस अमावस की काली रात में
अकेला तन्हा बिल्कुल टूट चुका था मैं
आँखें बंद कर तलाश रहा था रौशनी की एक किरण को
ढूँढ रहा था मिट्टी की उस खुश्बू को
जो बारिश की पहली बूँद उसे देती है
तभी वो लम्हे बिजली की तरह आ गये मेरी आँखों के सामने
वो खिलखिलाती हुई शामें
वो रोमांचित कर देने वाले दिन
चुप्पी तोड़ चुकी थी वो काली रात
हट चुके थे ख्वाहिशों के पर्दे
अब ठोकरें अक्सर लगा करती है
पर याद कर लिया करता हूँ
उन चन्द मामूली लोगों के साथ बिताए हुए वो अनमोल पल
चेहरे पे मुस्कान लिए फिर निकल पड़ता हूँ
बिना कुछ सोचे बिना कुछ समझे
एक नये रास्ते पर एक नयी मंज़िल के लिए

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