कदम दो कदम चले थे
ज़िंदगी को मुट्ठी में करने
ख्वाहिशों का परदा आँखों पे डालकर
चल पड़े थे ज़माने से लड़ने
पहली ठोकर थी वो
जिसने छोड़ दिया था मुझे उस अमावस की काली रात में
अकेला तन्हा बिल्कुल टूट चुका था मैं
आँखें बंद कर तलाश रहा था रौशनी की एक किरण को
ढूँढ रहा था मिट्टी की उस खुश्बू को
जो बारिश की पहली बूँद उसे देती है
तभी वो लम्हे बिजली की तरह आ गये मेरी आँखों के सामने
वो खिलखिलाती हुई शामें
वो रोमांचित कर देने वाले दिन
चुप्पी तोड़ चुकी थी वो काली रात
हट चुके थे ख्वाहिशों के पर्दे
अब ठोकरें अक्सर लगा करती है
पर याद कर लिया करता हूँ
उन चन्द मामूली लोगों के साथ बिताए हुए वो अनमोल पल
चेहरे पे मुस्कान लिए फिर निकल पड़ता हूँ
बिना कुछ सोचे बिना कुछ समझे
एक नये रास्ते पर एक नयी मंज़िल के लिए
:)... badhiya hai
ReplyDeletethnk u :)
ReplyDeletemastoo :)
ReplyDeletereally nic......:)
ReplyDeletethnks bhai :)
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