माँगा बहुत कुछ इस ज़िंदगी से
पर मिला वो ही जो माँगा ना था
किया बहुत कुछ ज़िंदगी में
मगर हुआ वही जो सोचा ना था
अंधेरों में ऐसी रोशनी तलाशते रहे
चरागों से भी ज़िंदगी में उजाला ना हुआ
मुक्कदर ने ऐसी पीला दी शराब
की ज़िंदगी में नशा दोबारा ना हुआ
हंस हंस के ज़ीन ज़ख़्मों को सहते रहे हम
उनको नासूर बनाने वाले का ठिकाना ना रहा
जिस कश्ती की तलाश में निकले थे हम
कश्ती तो मिली पर किनारा ना रहा
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